2 -अप्रासंगिक हो चुकी रूढ़ियों और परम्पराओ में बदलाव ,
देश काल और परिस्तिथियों अनुसार हमारी रूढ़ियों और परम्परा में आमूलचूल बदलाव आवश्यक है ,वैसे बच्चियों की पढ़ाई और आत्मनिर्भरता ने दहेज प्रथा पर काफी कुछ अंकुश लगाया हे लेकिन इसका स्थान अहंकारजनित आडंबर ने ले लिया विवाह एक संस्कार के बजाय आडंबर होता जा रहा अपना वैभव और संम्पन्नता दिखाने का साधन बनता जा रहा , कर्ज लेकर महंगा डैकोरेशन गार्डन अनेक स्टाल व्यंजन ये फिजूल खर्ची अपने बच्चो के लिए नहीं बल्कि हम अपने वैभव प्रदर्शन हेतु कर रहे है , में कहना चाहती हूँ अध्यक्षजी यही रकम नव वरवधू को आत्मनिर्भर और सुखी जीवन यापन करने हेतु प्रदान करना आज ज्यादा प्रासंगिक है , सच पूछा जाए तो विवाह सोलह संस्कारो में से एक अति महत्वपूर्ण संस्कार है जो केवल कुटुम्बी परिजन की सहभागिता में संम्पन्न होना चाहिए , लेकिन हमने इसे समाज में स्टेटस और व्यवहार का जरिया बना लिया / इसमें मध्यम वर्गीय बुरी तरह पीस रहा उसका कर्जा और ब्याज कुछ माफ़ नहीं हो रहा । टेक्स और मंहगाई को रो रहा:/
अध्यक्षजी वैसे तो शने : शने : अंतर्जातीय तथा प्रेमविवाह ने पत्रिका मिलान का चलन कम कर दिया है , लेकिन फिर भी आज देखने में आता है की बार पत्रिका में दोष के कारण रिश्ता करने में बड़ी कठिनाई आती है , इस वहम को अभियान चालाकर हमे मिटाना होगा , पत्रिका मिलान का महत्व और आवश्यकता तब प्रासंगिक थी जब बच्चो के बाल विवाह कर दिए जाते थे , वर वधु फिजिकल ही डेवलप नहीं होते तो फ्यूचर की क्या बात तो ? पत्रिका ही आधार होता था , दोनों के ग्रह योग से एक दूसरे का निभाव देखा जाता था , लेकिन अध्यक्षजी , आज हम 26 , 28 साल के बच्चो का विवाह रचाते ताकि उनका एजुकेशन सेटल जॉब घर बार परिवार की जिम्मेदारी करीब करीब जिंदगी की दिशा और दशा तय हो चुकी होती है ,आधी उम्र तो निकल चुकी होती है ,ऐसे में अब पत्रिका जीवन में क्या चमत्कारी परिवर्तन करेगा कोनसी लाटरी खुलेगी या गड़ा मिलेगा ?, मृत्यु का दिन किसी पत्रिका में नहीं लिखा होता ? हमे ाआनेवाली पड़ी की ख़ुशी और समृध्दि के लिए अपनी सोच को बदलना होगा ,घर और परिवार में क्रन्तिकारी परिवर्तन लाना होगा /
अध्यक्षजी -------?
मृत्यु के बाद के खटकर्म मुखग्नि देने वाला भाई बंधुओ सहित तेरह दिन गंजा हो सूतक की कैद में रहे , अब संभव नहीं आजकल का बच्चो का जीवन मशीन की तरह हो गया है , इसलिए तीन दिन में शोक निवारण , सब अपने अपने रास्ते , फिर जो पैतृक जहां है जैसा उससे बने वो करना चाहे करे ,ये जरुरी नहीं की मृत्यु के बाद लिटाकर जहां तुमने पाटले बिछा दिए वही सारा उत्तर कार्य हो , आत्मा तो परमात्मा में विलीन हो गई , आत्मा सर्व व्यापी है उसके निमित कहि भी कुछ करोगे तो उसको मिलेगा ,?
अध्यक्षजी --- अपने बच्चो के खिरते बालो को लेकर रात दिन चिंतित रहने वाली माताए अपने मरने के बाद भी अपने बच्चो को गँजा नहीं देखना चाहेगी , लेकिन लोक लाज रूडी परम्परा आड़े आएगी , इसलिए हम माता - बहनो को अपनी वसीयत बनानी है उसमे यही बात दोहरानी हे की हमारे मरने के बाद कितनी और कैसी रस्म तुम्हे निभानी , परिवार में गंजी किसी को नहीं करानी ?
अगर मेरी बात से सहमत है तो सदन करतल ध्वनि से स्वीकार करे ?
देश काल और परिस्तिथियों अनुसार हमारी रूढ़ियों और परम्परा में आमूलचूल बदलाव आवश्यक है ,वैसे बच्चियों की पढ़ाई और आत्मनिर्भरता ने दहेज प्रथा पर काफी कुछ अंकुश लगाया हे लेकिन इसका स्थान अहंकारजनित आडंबर ने ले लिया विवाह एक संस्कार के बजाय आडंबर होता जा रहा अपना वैभव और संम्पन्नता दिखाने का साधन बनता जा रहा , कर्ज लेकर महंगा डैकोरेशन गार्डन अनेक स्टाल व्यंजन ये फिजूल खर्ची अपने बच्चो के लिए नहीं बल्कि हम अपने वैभव प्रदर्शन हेतु कर रहे है , में कहना चाहती हूँ अध्यक्षजी यही रकम नव वरवधू को आत्मनिर्भर और सुखी जीवन यापन करने हेतु प्रदान करना आज ज्यादा प्रासंगिक है , सच पूछा जाए तो विवाह सोलह संस्कारो में से एक अति महत्वपूर्ण संस्कार है जो केवल कुटुम्बी परिजन की सहभागिता में संम्पन्न होना चाहिए , लेकिन हमने इसे समाज में स्टेटस और व्यवहार का जरिया बना लिया / इसमें मध्यम वर्गीय बुरी तरह पीस रहा उसका कर्जा और ब्याज कुछ माफ़ नहीं हो रहा । टेक्स और मंहगाई को रो रहा:/
अध्यक्षजी वैसे तो शने : शने : अंतर्जातीय तथा प्रेमविवाह ने पत्रिका मिलान का चलन कम कर दिया है , लेकिन फिर भी आज देखने में आता है की बार पत्रिका में दोष के कारण रिश्ता करने में बड़ी कठिनाई आती है , इस वहम को अभियान चालाकर हमे मिटाना होगा , पत्रिका मिलान का महत्व और आवश्यकता तब प्रासंगिक थी जब बच्चो के बाल विवाह कर दिए जाते थे , वर वधु फिजिकल ही डेवलप नहीं होते तो फ्यूचर की क्या बात तो ? पत्रिका ही आधार होता था , दोनों के ग्रह योग से एक दूसरे का निभाव देखा जाता था , लेकिन अध्यक्षजी , आज हम 26 , 28 साल के बच्चो का विवाह रचाते ताकि उनका एजुकेशन सेटल जॉब घर बार परिवार की जिम्मेदारी करीब करीब जिंदगी की दिशा और दशा तय हो चुकी होती है ,आधी उम्र तो निकल चुकी होती है ,ऐसे में अब पत्रिका जीवन में क्या चमत्कारी परिवर्तन करेगा कोनसी लाटरी खुलेगी या गड़ा मिलेगा ?, मृत्यु का दिन किसी पत्रिका में नहीं लिखा होता ? हमे ाआनेवाली पड़ी की ख़ुशी और समृध्दि के लिए अपनी सोच को बदलना होगा ,घर और परिवार में क्रन्तिकारी परिवर्तन लाना होगा /
अध्यक्षजी -------?
मृत्यु के बाद के खटकर्म मुखग्नि देने वाला भाई बंधुओ सहित तेरह दिन गंजा हो सूतक की कैद में रहे , अब संभव नहीं आजकल का बच्चो का जीवन मशीन की तरह हो गया है , इसलिए तीन दिन में शोक निवारण , सब अपने अपने रास्ते , फिर जो पैतृक जहां है जैसा उससे बने वो करना चाहे करे ,ये जरुरी नहीं की मृत्यु के बाद लिटाकर जहां तुमने पाटले बिछा दिए वही सारा उत्तर कार्य हो , आत्मा तो परमात्मा में विलीन हो गई , आत्मा सर्व व्यापी है उसके निमित कहि भी कुछ करोगे तो उसको मिलेगा ,?
अध्यक्षजी --- अपने बच्चो के खिरते बालो को लेकर रात दिन चिंतित रहने वाली माताए अपने मरने के बाद भी अपने बच्चो को गँजा नहीं देखना चाहेगी , लेकिन लोक लाज रूडी परम्परा आड़े आएगी , इसलिए हम माता - बहनो को अपनी वसीयत बनानी है उसमे यही बात दोहरानी हे की हमारे मरने के बाद कितनी और कैसी रस्म तुम्हे निभानी , परिवार में गंजी किसी को नहीं करानी ?
अगर मेरी बात से सहमत है तो सदन करतल ध्वनि से स्वीकार करे ?
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